
डॉ. राजकुमार यादव
राष्ट्रीय अध्यक्ष – राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चा (ट्रक ट्रांसपोर्ट सारथी) “उफ्तत्सा” सह
अध्यक्ष, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, उड़ीसा
भारतीय राजनीति एक जटिल और गतिशील क्षेत्र है, जहां विचारधाराएं, व्यक्तित्व, और सत्ता की चाहत आपस में टकराती रहती हैं। राजनीतिक दलों के भीतर नेताओं का हीनता बोध (इन्फीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स) और गुटबाजी ऐसी समस्याएं हैं, जो न केवल दलों की आंतरिक एकता को कमजोर करती हैं, बल्कि लोकतंत्र की गुणवत्ता पर भी प्रश्नचिह्न लगाती हैं। यह लेख इन दोनों मुद्दों पर गहराई से विचार करता है और उनके प्रभावों, कारणों, और संभावित समाधानों पर प्रकाश डालता है।
हीनता बोध: नेताओं की मनोवैज्ञानिक चुनौती
हीनता बोध एक ऐसी मनोवैज्ञानिक स्थिति है, जिसमें व्यक्ति स्वयं को दूसरों से कमतर या असमर्थ मानता है। राजनीति में यह प्रवृत्ति नेताओं में तब देखने को मिलती है, जब वे अपनी योग्यता, लोकप्रियता, या प्रभाव को लेकर असुरक्षा महसूस करते हैं। भारतीय राजनीति में यह समस्या कई रूपों में सामने आती है। कुछ नेता अपनी शैक्षिक पृष्ठभूमि, सामाजिक स्थिति, या भाषण कला को लेकर हीन भावना से ग्रस्त हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने वाले नेता कभी-कभी शहरी, शिक्षित, और प्रभावशाली नेताओं के सामने स्वयं को कमतर महसूस करते हैं।
यह हीनता बोध कई बार नेताओं को अतिशयोक्तिपूर्ण व्यवहार की ओर ले जाता है। कुछ नेता अपनी असुरक्षा को छिपाने के लिए आक्रामकता, दिखावटी आत्मविश्वास, या अनावश्यक विवादों का सहारा लेते हैं। दूसरी ओर, कुछ नेता अपनी हीन भावना के कारण निर्णय लेने में हिचकिचाते हैं या सत्ता के शीर्ष नेताओं के सामने चापलूसी का रास्ता अपनाते हैं। यह व्यवहार न केवल उनकी व्यक्तिगत छवि को प्रभावित करता है, बल्कि दल की नीतियों और कार्यशैली को भी कमजोर करता है।
गुटबाजी: राजनीति का कैंसर
गुटबाजी राजनीतिक दलों की एक ऐसी बीमारी है, जो उनकी एकता और प्रभावशीलता को नष्ट कर देती है। भारतीय राजनीति में गुटबाजी कोई नई बात नहीं है। चाहे वह राष्ट्रीय दल हों या क्षेत्रीय, लगभग हर दल में नेताओं के बीच गुटबाजी देखने को मिलती है। यह गुटबाजी कई बार व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं, विचारधारात्मक मतभेदों, या क्षेत्रीय हितों के कारण उत्पन्न होती है। उदाहरण के लिए, हाल के वर्षों में कई राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों में नेताओं के बीच सत्ता के लिए खींचतान और गुटबाजी की खबरें सामने आई हैं।
गुटबाजी का एक प्रमुख कारण नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा है। जब कोई नेता यह महसूस करता है कि उसे पार्टी में उचित स्थान या सम्मान नहीं मिल रहा, तो वह अपने समर्थकों के साथ मिलकर एक अलग गुट बना लेता है। यह गुटबाजी कभी-कभी इतनी तीव्र हो जाती है कि दल के भीतर ही सत्ता का समानांतर केंद्र बन जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि दल का नेतृत्व कमजोर पड़ता है, और नीतिगत निर्णय लेने की प्रक्रिया बाधित होती है।
हीनता बोध और गुटबाजी का आपसी संबंध
हीनता बोध और गुटबाजी एक-दूसरे को बढ़ावा देते हैं। जब कोई नेता अपनी स्थिति को लेकर असुरक्षित महसूस करता है, तो वह अपने समर्थन को मजबूत करने के लिए गुटबाजी का सहारा लेता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई नेता यह मानता है कि उसे पार्टी के शीर्ष नेतृत्व द्वारा नजरअंदाज किया जा रहा है, तो वह अपने अनुयायियों को इकट्ठा करके एक गुट बनाता है, जो उसकी स्थिति को मजबूत करने का प्रयास करता है। यह प्रक्रिया न केवल दल के भीतर तनाव पैदा करती है, बल्कि दीर्घकालिक रूप से दल की विश्वसनीयता को भी प्रभावित करती है।
प्रभाव: लोकतंत्र और जनता पर असर
नेताओं का हीनता बोध और गुटबाजी न केवल दलों के लिए, बल्कि समग्र लोकतंत्र के लिए भी हानिकारक है। जब नेता अपनी असुरक्षाओं या गुटबाजी में उलझे रहते हैं, तो वे जनता के हितों पर ध्यान देने के बजाय अपनी व्यक्तिगत छवि या सत्ता को बचाने में लग जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि नीतिगत निर्णय जनता की भलाई के बजाय नेताओं की निजी महत्वाकांक्षाओं से प्रभावित होते हैं।
उदाहरण के लिए, जब किसी दल में गुटबाजी के कारण नीतियां या उम्मीदवारों का चयन प्रभावित होता है, तो इसका सीधा असर चुनावी प्रदर्शन पर पड़ता है। जनता का विश्वास उस दल से उठने लगता है, जो आंतरिक रूप से बिखरा हुआ दिखाई देता है। इसके अलावा, गुटबाजी के कारण कई बार योग्य और प्रतिभाशाली नेताओं को अवसर नहीं मिलता, जबकि कम योग्य लेकिन प्रभावशाली गुटों से जुड़े नेता आगे बढ़ जाते हैं। यह प्रक्रिया दल की गुणवत्ता को कम करती है और लोकतंत्र में योग्यता के आधार पर नेतृत्व के सिद्धांत को कमजोर करती है।
कारण: सामाजिक और संरचनात्मक कारक
हीनता बोध और गुटबाजी के पीछे कई सामाजिक और संरचनात्मक कारक हैं। भारतीय समाज में जाति, क्षेत्र, और सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि जैसे कारक नेताओं की मानसिकता को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, जो नेता समाज के हाशिए पर मौजूद समुदायों से आते हैं, वे कभी-कभी मुख्यधारा के नेताओं के सामने हीन भावना से ग्रस्त हो सकते हैं। इसके अलावा, भारतीय राजनीति में व्यक्तित्व-प्रधान संस्कृति (पर्सनैलिटी-ड्रिवन पॉलिटिक्स) भी एक प्रमुख कारण है। जब नेतृत्व एक या दो व्यक्तियों के इर्द-गिर्द केंद्रित हो जाता है, तो अन्य नेताओं में असुरक्षा और प्रतिस्पर्धा की भावना बढ़ती है।
संरचनात्मक रूप से, राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की कमी भी गुटबाजी को बढ़ावा देती है। कई दलों में नेतृत्व का चयन लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के बजाय वंशवाद, चापलूसी, या प्रभाव के आधार पर होता है। इससे असंतुष्ट नेता अपने समर्थकों के साथ अलग गुट बना लेते हैं। इसके अलावा, मीडिया और सोशल मीडिया का दबाव भी नेताओं में हीनता बोध को बढ़ाता है, क्योंकि उनकी तुलना लगातार अन्य नेताओं से की जाती है।
समाधान: एक रचनात्मक दृष्टिकोण
इन समस्याओं का समाधान आसान नहीं है, लेकिन कुछ कदम उठाए जा सकते हैं। सबसे पहले, राजनीतिक दलों को अपने भीतर लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को मजबूत करना होगा। नेतृत्व का चयन और नीतिगत निर्णय पारदर्शी और समावेशी तरीके से होने चाहिए। इससे नेताओं में यह विश्वास पैदा होगा कि उनकी योग्यता को उचित सम्मान मिलेगा।
दूसरे, नेताओं को मनोवैज्ञानिक और पेशेवर प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए। यह प्रशिक्षण उन्हें अपनी असुरक्षाओं से निपटने और नेतृत्व कौशल को बेहतर बनाने में मदद करेगा। तीसरे, दलों को गुटबाजी को हतोत्साहित करने के लिए सख्त नियम लागू करने चाहिए। उदाहरण के लिए, गुटबाजी करने वाले नेताओं को पार्टी से निलंबित करने या उनकी जिम्मेदारियों को कम करने जैसे कदम उठाए जा सकते हैं।
चौथे, जनता को भी जागरूक होने की आवश्यकता है। जब मतदाता उन दलों या नेताओं को समर्थन देना बंद कर देंगे, जो गुटबाजी और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं में उलझे हैं, तो दलों पर बेहतर प्रदर्शन का दबाव बढ़ेगा। अंत में, मीडिया को भी जिम्मेदारी से काम करना होगा। नेताओं की तुलना और व्यक्तिगत आलोचना के बजाय नीतियों और विचारधाराओं पर ध्यान देना चाहिए।
राजनीतिक दलों में नेताओं का हीनता बोध और गुटबाजी भारतीय लोकतंत्र की दो प्रमुख चुनौतियां हैं। ये समस्याएं न केवल दलों की आंतरिक एकता को कमजोर करती हैं, बल्कि जनता का विश्वास भी तोड़ती हैं। इनका समाधान तभी संभव है, जब दल और नेता स्वयं में सुधार लाने के लिए तैयार हों। आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करना, नेताओं को प्रशिक्षण देना, और जनता को जागरूक करना इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकते हैं। भारतीय लोकतंत्र की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि हमारे राजनीतिक दल कितनी जल्दी इन समस्याओं से पार पाते हैं और जनहित को सर्वोपरि रखते हैं।
(लेखक के निजी बिचार है)